लेखिका: वेरा पनोवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
घर में परिवर्तन
“ सिर्योझेंका,” मम्मा ने कहा, “जानते हो, …मैं चाहती हूँ कि हमारे पास पापा होते.”
सिर्योझा ने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा. उसने इस बारे में सोचा ही नहीं था. कुछ बच्चों के पापा होते हैं, कुछ के नहीं. सिर्योझा के भी नहीं हैं : उसके पापा लड़ाई में मारे गए हैं; उसने उन्हें सिर्फ फ़ोटो में देखा है. कभी कभी मम्मा फ़ोटो को चूमती थी और सिर्योझा को भी चूमने के लिए देती थी. वह फ़ौरन मम्मा की साँसों से धुँधला गए काँच पर अपने होंठ रख देता था, मगर प्यार का एहसास उसे नहीं होता था : वह उस आदमी से प्यार नहीं कर सकता था जिसे उसने सिर्फ फ़ोटो में देखा हो.
वह मम्मा के घुटनों के बीच में खड़ा था और सवालिया नज़र से उसके चेहरे की ओर देख रहा था. वह धीरे-धीरे गुलाबी होता गया : पहले गाल गुलाबी हो गए, उनसे नाज़ुक सी लाली माथे और कानों पर फैल गई….मम्मा ने सिर्योझा को घुटनों के बीच दबा लिया, उसे बाँहों में भर लिया और अपना गर्म गाल उसके सिर पर रख दिया. अब उसे सिर्फ उसका हाथ ही दिखाई दे रहा था, सफ़ेद-सफ़ेद गोलों वाली नीली आस्तीन में. फुसफुसाते हुए मम्मा ने पूछा:
“बगैर पापा के अच्छा नहीं लगता, है ना? ठीक है ना?”
“हाँ–आ,” उसने भी न जाने क्यों फुसफुसाहट से जवाब दिया.
असल में इस बात का उसे यक़ीन नहीं था. उसने “हाँ” इसलिए कह दिया, क्योंकि वह चाहती थी कि वो “हाँ” कहे. तभी उसने सोचा : “क्या अच्छा है – पापा के साथ या बगैर पापा के? जैसे कि, जब तिमोखिन उन्हें लॉरी में घुमाने ले जाता है, तो सारे बच्चे ऊपर बैठते हैं, मगर शूरिक हमेशा कैबिन में बैठता है, और सभी उससे जलते हैं, मगर कोई भी बहस नहीं करता, क्योंकि तिमोखिन – शूरिक के पापा हैं. मगर, जब शूरिक सुनता नहीं है तो तिमोखिन उसे बेल्ट से मारता भी है, और शूरिक गालों पर आँसुओं के निशान लिए उदास घूमता है; और सिर्योझा को बहुत दुख होता है, वह अपने सारे खिलौने आँगन में ले आता है जिससे शूरिक को अच्छा लगे…मगर, हो सकता है, फिर भी पापा के साथ ज़्यादा अच्छा होता है : अभी हाल ही में वास्का ने लीदा को सताया था तो वह चीख़ी थी, “मेरे पास तो पापा हैं, तेरे तो पापा ही नहीं हैं…आ हा हा!”
“ये क्या धड्-धड् कर रहा है?” सिर्योझा ने मम्मा के सीने में धड्-धड् की आवाज़ सुनकर दिलचस्पी लेते हुए ज़ोर से पूछा.
मम्मा मुस्कुराई, उसने सिर्योझा को चूमा और कस कर सीने से लगा लिया.
“ये दिल है, मेरा दिल.”
“और मेरे पास?” उसने सिर झुकाते हुए पूछा जिससे सुन सके.
“तेरे पास भी है.”
“नहीं, मेरा दिल तो धड्-धड् नहीं कर रहा है.”
“करता है. सिर्फ तुझे सुनाई नहीं देता. वह तो धड़कता ही है. अगर धड़केगा नहीं तो आदमी ज़िन्दा नहीं रह सकता.”
“हमेशा धड़कता है?”
:हमेशा.”
“और, जब मैं सोता हूँ?”
“जब तुम सोते हो तब भी.”
“तो क्या तुम्हें सुनाई दे रहा है?”
“हाँ. सुनाई दे रहा है. तुम भी हाथ से महसूस कर सकते हो,” उसने उसका हाथ पकड़ा और पसलियों के पास रखा.
“महसूस हो रहा है?”
“हो रहा है. ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा है. क्या वह बड़ा है?”
“अपनी मुट्ठी बन्द करो. ऐसे. वो क़रीब-क़रीब इतना ही बड़ा होता है.”
“छोड़ो,” उसने मम्मा के हाथों से छूटते हुए ख़यालों में डूबे-डूबे कहा.
“अभी आया, “ उसने कहा और बाईं ओर हाथ कस कर दबाए बाहर सड़क पर भागा. सड़क पर वास्का और झेन्का थे. वह भागकर उनके पास गया और बोला, “देखो, देखो, कोशिश करो, चाहते हो? यहाँ मेरा दिल है. मैं हाथ से उसे महसूस कर रहा हूँ. देखना है तो देखो, देखोगे?”
“इसमें क्या ख़ास बात है!” वास्का ने कहा, “सभी के पास दिल होता है.”
मगर झेन्का ने कहा, “चल, देखते हैं.”
और उसने सिर्योझा के सीने पर एक किनारे हाथ रख दिया.
“महसूस हो रहा है?” सिर्योझा ने पूछा.
“हाँ, हाँ,” झेन्का ने कहा.
वो क़रीब-क़रीब उतना बड़ा है जितनी मेरी ये मुट्ठी है,” सिर्योझा ने कहा.
“तुझे कैसे मालूम?” वास्का ने पूछा.
“मुझे मम्मा ने बताया,” सिर्योझा ने जवाब दिया, और याद करके आगे बोला, “और मेरे पास तो पापा आने वाले हैं!”
मगर वास्का और झेन्का ने कुछ सुना नहीं, वे अपने काम में मगन थे : वे औषधी वनस्पतियाँ ले जा रहे थे, गोदाम में देने के लिए. फेन्सिंग पर फ़ेहरिस्त लगी हुई थी उन वनस्पतियों की जो वहाँ ली जाती थीं; और बच्चे पैसे कमाना चाहते थे. दो दिन घूम-घूमकर उन्होंने घास-फूस इकट्ठा किया. वास्का ने अपना घास-फूस माँ को दिया और उससे कहा कि वह उन्हें अलग-अलग छाँट कर साफ़ कपड़े में बांध दे; और अब वह बड़ी, बढ़िया गठरी में उन्हें गोदाम ले जा रहा था. मगर झेन्का की तो माँ ही नहीं है, मौसी और बहन काम पर गई हैं; वह ख़ुद तो यह सब कर नहीं सकता; झेन्का इन औषधी वनस्पतियों को आलुओं के फटे थैले में बेतरतीबी से ठूँस कर गोदाम ले जा रहा था, जड़ समेत, मिट्टी समेत. मगर उसने ख़ूब सारी वनस्पतियाँ इकट्ठी कर ली थीं; वास्का से भी ज़्यादा; उसने थैले को पीठ पर डाला – और वह बोझ से दुहरा हो गया.
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा,” सिर्योझा उनके पीछे-पीछे चलते हुए बोला.
“नहीं,” वास्का ने कहा, “घर वापस जाओ, हम काम से जा रहे हैं.”
“मैं, बस यूँ ही,” सिर्योझा ने कहा, “बस साथ चलूँगा.”
“कह दिया ना – वापस जा!” वास्का ने हुकुम दिया. “ये कोई खेल नहीं है. छोटे बच्चों का वहाँ कोई काम नहीं है!”
सिर्योझा पीछे ठहर गया. उसका होंठ थरथरा रहा था, मगर उसने अपने आप पर काबू पा लिया: लीदा आ रही थी, उसके सामने रोना नहीं चाहिए, वर्ना वह चिढ़ाएगी: ‘रोतला! रोतला!’
“तुझे नहीं ले गए? उसने पूछा. “कैसा है रे तू!”
“अगर मैं चाहूँ,” सिर्योझा ने कह, “तो ये इत्ती बहुत सी अलग-अलग तरह की घास इकट्ठा कर लूँ! आसमान से भी ऊँचा ढेर!”
“आसमान से भी ऊँचा – झूठ बोल रहा है,” लीदा ने कहा. “आसमान से ऊँचा ढेर तो कोई भी नहीं बना सकता.”
“अच्छा, तो मेरे पापा आने वाले हैं ना, वे बनाएँगे,” सिर्योझा ने कहा.
“तू बस, झूठ ही बोलता रहता है,” लीदा ने कहा. “कोई पापा-वापा नहीं आएँगे तेरे पास. और अगर आ भी गए तो कुछ इकट्ठा नहीं करेंगे. कोई भी इकट्ठा नहीं करेगा.”
सिर्योझा ने सिर पीछे करके आसमान की ओर देखा और सोच में पड़ गया : ’क्या आसमान से ऊँचा घास का ढेर इकट्ठा किया जा सकता है या नहीं?’ जब तक वह सोचता रहा लीदा भागकर अपने घर गई और एक रंगबिरंगा स्कार्फ उठा लाई – उसकी माँ यह स्कार्फ पहनती थी, कभी गर्दन में, तो कभी सिर पर. स्कार्फ लेकर लीदा नाचने लगी – स्कार्फ हवा में नचाती, हाथ-पैर इधर-उधर फेंकती और कुछ गुनगुनाती. सिर्योझा खड़े-खड़े देख रहा था. एक मिनट के लिए रुककर लीदा ने कहा:
“नाद्या झूठ बोलती है कि उसे बैले-स्कूल भेज रहे हैं.”
कुछ देर और नाचने के बाद फिर बोली, “बैलेरीना की पढ़ाई मॉस्को में भी होती है और लेनिनग्राद में भी.”
और सिर्योझा की आँखों में अचरज के भाव देखकर उसने बड़े दिल से कहा:
“ तू क्या कर रहा है? सीख मेरे साथ, हूँ, मेरी तरफ देख और जैसा मैं कर रही हूँ, वैसा ही कर.”
वह करने लगा, मगर बिना स्कार्फ के बात बनी नहीं. उसने उसे गाने के लिए कहा, इसका भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ. उसने मिन्नत की, “ मुझे स्कार्फ दे!”
मगर उसने कहा:
“ऐह, कैसा है रे तू! तुझे हर चीज़ चाहिए!”
और उसने स्कार्फ नहीं दिया. इसी समय ‘गाज़िक’ कार वहाँ आई और सिर्योझा के गेट के पास रुक गई. कार से ड्राईवर-महिला उतरी, और फ़ाटक से पाशा बुआ बाहर आई. महिला-ड्राईवर ने कहा, “ये लीजिए, दिमित्री कर्नेयेविच ने भेजा है.”
कार में सूटकेस थी और रस्सियों से बँधे किताबों के गट्ठे थे. और कोई एक मोटी, भूरी चीज़ थी, गोल-गोल बंधी हुई – वह खुल गई, और पता चला कि वह एक ग्रेट-कोट था. पाशा बुआ और ड्राईवर यह सब घर के अन्दर ले जाने लगीं. मम्मा ने खिड़की से बाहर झाँका और वह छिप गई. महिला-ड्राईवर बोली, “माफ़ कीजिए.’ यही सब कुछ है.”
पाशा बुआ ने दुखी आवाज़ में कहा:
“कम से कम ओवरकोट ही ख़रीद लेता.”
“ख़रीदेगा,” ड्राईवर ने वादा किया. “थोड़ा इंतज़ार कीजिए. और, ये ख़त दे दीजिए.”
उसने ख़त दिया और वह चली गई. सिर्योझा चिल्लाते हुए घर के भीतर भागा:
“”मम्मा! मम्मा! करस्तिल्योव ने हमें अपना ग्रेट कोट भेजा है!”
(दिमित्री कर्नेयेविच करस्तिल्योव उनके यहाँ अक्सर आया करता था. वह सिर्योझा को खिलौने दिया करता और एक बार सर्दियों में उसे स्लेज पर सैर भी कराई थी. उसके ग्रेट कोट पर शोल्डर स्ट्रैप्स नहीं थे, वह लड़ाई के समय से पड़ा था. ‘दिमित्री कर्नेयेविच’ कहना मुश्किल लगता है, इसलिए सिर्योझा उसे करस्तिल्योव कहता था.)
ग्रेट कोट हैंगर पर टंग गया, और मम्मा ख़त पढ़ रही थी. उसने फ़ौरन जवाब नहीं दिया, बल्कि ख़त को पूरा पढ़ने के बाद बोली:
“मुझे मालूम है, सिर्योझेन्का, करस्तिल्योव अब हमारे साथ रहेंगे. वही तुम्हारे पापा होंगे.”
और वह फिर से उसी ख़त को पढ़ने लगी – शायद एक बार पढ़ने से याद नहीं रहा होगा कि उसमें क्या लिखा है.
’पापा’ शब्द सुनकर सिर्योझा ने किसी अनजान, अनदेखी चीज़ की कल्पना की थी. मगर करोस्त्येलोव तो उनकी अच्छी जान-पहचान का है, पाशा बुआ और लुक्यानिच उसे ‘मीत्या’ कहकर बुलाते हैं – ये मम्मा को क्या सूझी? सिर्योझा ने पूछा, “मगर क्यों?”
“सुनो,” मम्मा ने कहा, “तुम मुझे ख़त पढ़ने दोगे या नहीं?”
उसने उसकी बात का जवाब नहीं दिया. उसे बहुत सारे काम करने थे. उसने किताबें खोलीं और उन्हें शेल्फ पर रख दिया. हर किताब को कपड़े से पोंछ दिया. फिर उसने दूसरी चीज़ें आईने की सामने वाली दराज़ में रख दीं. फिर वह आँगन में गई और फूल तोड़ लाई और उन्हें फ्लॉवर-पॉट में सजा दिया. फिर न जाने क्यों उसने फर्श धो दिया, हालाँकि वह साफ़ ही था. इसके बाद वह ‘पिरोग’ बनाने लगी. पाशा बुआ उसे सिखा रही थी कि आटा कैसे मलना है. सिर्योझा को भी थोड़ी सी लोई और सेमिया दी गईं, और उसने भी पिरोग बनाया, छोटा सा.
जब करस्तिल्योव आया तो सिर्योझा अपने सभी संदेहों के बारे में भूल चुका था और उसने उससे कहा, “करस्तिल्योव ! देखो, मैंने ‘पिरोग’ बनाया!”
करस्तिल्योव ने नीचे झुककर उसे कई बार चूमा, सिर्योझा सोचने लगा, “ये मुझे इसलिए इतनी देर चूम रहा है क्योंकि अब ये मेरा पापा है.”
करस्तिल्योव ने अपना सूटकेस खोला, उसमें से मम्मा की फ्रेम-जड़ी तस्वीर निकाली, किचन से हथौड़ा और कील ली और उसे सिर्योझा के कमरे में टांग दिया.
“ये किसलिय?” मम्मा ने पूछा, “जब मैं हमेशा जीती-जागती तुम्हारे साथ रहने वाली हूँ?”
करस्तिल्योव ने उसका हाथ पकड़ा, वे एक दूसरे के नज़दीक आए, मगर उनकी नज़र सिर्योझा पर पड़ी और उन्होंने हाथ छोड़ दिए. मम्मा बाहर निकल गई. करस्तिल्योव कुर्सी पर बैठ गया और ख़यालों में डूबकर कहने लगा, “तो, ये बात है, भाई सिर्गेई. मैं, मतलब, तुम्हारे यहाँ आ गया हूँ, तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है ना?”
“क्या तुम हमेशा के लिए आ गए हो?” सिर्योझा ने पूछा.
“हाँ,” करस्तिल्योव ने कहा, हमेशा के लिए.”
“और, क्या तुम मुझे बेल्ट से मारा करोगे?” सिर्योझा ने पूछा.
करस्तिल्योव को बड़ा अचरज हुआ.
“मैं तुम्हें बेल्ट से क्यों मारूँगा?”
“जब मैं तुम्हारी बात नहीं सुनूँगा,” सिर्योझा ने समझाया.
“नहीं,” करस्तिल्योव ने कहा, “मेरे ख़याल से ये बेवकूफ़ी है – बेल्ट से मारना- है ना?”
“बेवकूफ़ी है,” सिर्योझा ने पुष्टि की. “और बच्चे रोते हैं.”
“हम-तुम आपस में सलाह-मशविरा कर सकते हैं, जैसे एक मर्द दूसरे मर्द से करता है, बगैर किसी बेल्ट-वेल्ट के.”
“और तुम कौन से कमरे में सोया करोगे?” सिर्योझा ने पूछा.
“लगता है कि इसी कमरे में,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया. “ऐसा लगता तो है, भाई. और इतवार को हम और तुम जाएँगे – मालूम है हम दोनों कहाँ जाएँगे? दुकान में, जहाँ खिलौने मिलते हैं. जो पसन्द हो, तुम ख़ुद चुनोगे. पक्का?”
“पक्का!” सिर्योझा ने कहा. “मुझे बैसिकल चाहिए. और क्या इतवार जल्दी आने वाला है?”
“जल्दी.”
“कितने के बाद?”
“कल है शुक्रवार, फिर शनिवार और फिर इतवार.”
“मतलब, कोई ख़ास जल्दी नहीं आयेगा !” सिर्योझा ने कहा.
तीनों ने साथ बैठकर चाय पी : सिर्योझा, माँ और करस्तिल्योव ने. (पाशा बुआ और लुक्यानिच कहीं बाहर गए थे.) सिर्योझा को नींद आ रही थी. भूरी तितलियाँ लैम्प के चारों ओर घूम रही थीं, वे लैम्प से टकरातीं और कालीन पर गिर जातीं, अपने पंख फ़ड़फड़ाते हुए – इसकी वजह से और भी ज़्यादा नींद आ रही थी. अचानक उसने देखा कि कोरोस्तेयोव उसका पलंग कहीं ले जा रहा है.
“तुमने मेरा पलंग क्यों लिया?” सिर्योझा ने पूछा.
मम्मा ने कहा, “तुम बिल्कुल सो रहे हो, चलो, पैर धोएँगे.”
सुबह सिर्योझा उठा तो एकदम से समझ ही नहीं पाया कि वह कहाँ है. दो खिड़कियों के बदले तीन खिड़कियाँ क्यों हैं, और वे भी उस ओर नहीं, और परदे भी वो नहीं हैं. फिर उसे समझ में आया कि यह पाशा बुआ का कमरा है. वो बहुत ख़ूबसूरत है : खिड़कियों की देहलीज़ पर फूल रखे हैं, और शीशे के पीछे मोर का पंख फंसा है. पाशा बुआ और लुक्यानिच कब के उठकर चले गए थे, उनका बिस्तर ढँका हुआ था, तकिए सलीके से गड्डी बनाकर रखे थे. खुली हुई खिड़कियों के पीछे झाड़ियों में सुबह का सूरज खेल रहा था. सिर्योझा रेंगते हुए पलंग से बाहर आया, उसने लम्बी कमीज़ उतार दी, शॉर्ट्स पहन लिए और डाइनिंग रूम में आया. उसके कमरे का दरवाज़ा बन्द था. उसने हैंडिल को घुमाया – दरवाज़ा नहीं खुला. और उसे तो वहाँ ज़रूर जाना था : आख़िर उसके सारे खिलौने वहीं तो थे. नया छोटा सा फ़ावड़ा भी, जिससे अचानक मिट्टी खोदने का उसका मूड़ हुआ.
“मम्मा,” सिर्योझा ने पुकारा.
“मम्मा!” उसने दुबारा आवाज़ दी.
दरवाज़ा नहीं खुला, ख़ामोशी थी.
“मम्मा!” सिर्योझा पूरी ताक़त से चीख़ा.
पाशा बुआ भाग कर आई, उसका हाथ पकड़ा और किचन में ले गई.
“क्या करते हो, क्या करते हो!” वह फुसफुसाई. “कोई ऐसे चिल्लाता है भला! चिल्लाते नहीं हैं! भगवान की दया से, तुम छोटे नहीं हो! मम्मा सो रही है, और उसे आराम से सोने दो, क्यों उठाना है?”
“मुझे अपना फ़ावड़ा चाहिए,” उसने उत्तेजना से कहा.
“ले लेना, फ़ावड़ा कहीं भागा नहीं जा रहा है. मम्मा उठेगी – तब ले लेना,” पाशा बुआ ने कहा. “देखो तो, यह रही तुम्हारी गुलेल. अभी तुम गुलेल से खेल लो. चाहो, तो तुम्हें गाजर छीलने के लिए दूँगी. मगर सबसे पहले अच्छे आदमी मुँह-हाथ धोते हैं.”
तर्कसंगत और प्यारी बातों से सिर्योझा का मन शांत हो जाता है. उसने अपने हाथ-मुँह धुलवा लिए और दूध का गिलास भी पी लिया. फिर गुलेल लेकर बाहर निकल पड़ा. सामने फेंसिंग पर चिड़िया बैठी थी. सिर्योझा ने बिना निशाना साधे गुलेल से उस पर कंकर चलाया और, ज़ाहिर है, चूक गया. उसने जान बूझ कर निशाना नहीं साधा था, क्योंकि वह चाहे कितना ही निशाना क्यों न साधे, वह लगता ही नहीं, न जाने क्यों; मगर तब लीदा चिढ़ाती; मगर अब तो उसे चिढ़ाने का कोई हक ही नहीं है : ज़ाहिर था कि इन्सान ने निशाना नहीं साधा है, उसे तो बस गुलेल चलानी थी, सो चला दी, बगैर यह देखे कि कंकर कहाँ लगता है.
शूरिक अपने गेट से चिल्लाया:
“सेर्गेई, बगिया में चलें?”
“नहीं, दिल नहीं चाहता!” सिर्योझा ने कह.
वह बेंच पर बैठ गया और पैर हिलाने लगा. उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आँगन से गुज़रते हुए उसने देखा कि खिड़कियों के पल्ले भी बन्द हैं. उसने फ़ौरन तो इसका कोई मतलब नहीं निकाला, मगर अब वह समझ गया : गर्मियों में तो वे कभी भी बन्द नहीं होते, बन्द होते हैं सिर्फ सर्दियों में, जब तेज़ बर्फ गिरती है; मतलब ये कि खिलौने चारों तरफ़ से बन्द हैं, और उसे तो उनकी इतनी ज़रूरत थी कि वह ज़मीन पर पसर कर बिसूरने को भी तैयार था. बेशक, वह ज़मीन पर पसर कर चीखने वाला तो नहीं है, वह कोई छोटा थोड़े है, मगर इससे उसे हल्का महसूस नहीं हुआ. मम्मा और करस्तिल्योव ने सब कुछ बन्द कर लिया है, और उन्हें इस बात की ज़रा भी फ़िकर नहीं है कि उसे इसी समय फ़ावड़ा चाहिए.
‘जैसे ही वे उठेंगे,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘ मैं फ़ौरन सब-सब पाशा बुआ के कमरे में ले जाऊँगा. क्यूब नहीं भूलना है : वह एक बार अलमारी के पीछे गिर गया था और अभी तक वहीं पड़ा है.’
वास्का और झेन्का सिर्योझा के सामने आकर खड़े हो गए. और लीदा भी नन्हे विक्टर को हाथों में उठाए हुए वहाँ आ पहुँची. वे सब खड़े होकर सिर्योझा की ओर देख रहे थे. वह अपना पैर हिलाए जा रहा था और कुछ भी नहीं कह रहा था. झेन्का ने पूछा:
“आज तुझे क्या हुआ है?”
वास्का ने कहा:
“उसकी मम्मा ने शादी कर ली.”
कुछ देर सब चुप रहे.
“किससे शादी की?” झेन्का ने पूछा.
“करस्तिल्योव से,” ‘यास्नी बेरेग’ के डाइरेक्टर से,” वास्का ने कहा. “ओह, तो इसकी हजामत भी बना दी!”
“किसलिए बनाई हजामत?” झेन्का ने पूछा.
“यूँ ही – मतलब किसी अच्छे कारनामे के लिए,” वास्का ने कहा और जेब से सिगरेट का मुड़ा-तुड़ा पैकेट निकाला.
“मुझे भी पीने दे,” झेन्का ने कहा.
“मेरे पास भी, शायद, ये आख़री है,” वास्का ने कहा, मगर फिर भी उसने सिगरेट दी और, कश लगाकर, झेन्का की ओर जलती हुई दियासलाई बढ़ा दी. तीली की नोक पर लौ सूरज की रोशनी में पारदर्शी नज़र आ रही थी, दिखाई नहीं दे रही थी; दिखाई नहीं दे रहा था कि तीली काली होकर मुड़ क्यों गई और सिगरेट कैसे धुआँ छोड़ने लगी. सूरज सड़क के उस ओर था, जहाँ बच्चे इकट्ठा हुए थे; और दूसरी ओर अभी भी छाँव थी, और बिच्छू-बूटी के पत्ते, बागड़ के किनारे-किनारे, ओस में नहाए, काले और गीले लग रहे थे. सड़क के बीचोंबीच धूल : उस तरफ़ ठण्डी और इस तरफ़ गरम थी. और दो कतारें दाँतेदार पहियों के निशानों की: कोई ट्रैक्टर इधर से गुज़रा था.
“सिर्योझा दुखी है,” लीदा ने शूरिक से कहा, “उसके नए पापा आ गए हैं.”
“दुखी मत हो,” वास्का ने कहा, “वो चचा अच्छा ही है, चेहरे से पता चलता है. जैसे रहता है, वैसे ही तू रहेगा, तुझे क्या करना है.”
“वो मुझे बैसिकल ख़रीद के देने वाला है,” सिर्योझा ने अपनी कल की बातचीत को याद करके कहा.
“उसने वादा किया है,” वास्का ने पूछा, “या तू सिर्फ उम्मीद लगाए बैठा है?”
“वादा किया है. हम साथ-साथ जाएँगे दुकान में. इतवार को. कल होगा शुक्रवार, फिर शनिवार, और फिर इतवार.”
“दो पहिए वाली?” झेन्का ने पूछा.
“तीन पहियों वाली मत लेना,” वास्का ने सलाह दी. “उसका तुझे कोई फ़ायदा नहीं है. तू जल्दी से बड़ा हो जाएगा, तुझे दो पहियों वाली चाहिए.”
“झूठ बोल रहा है,” लीदा ने कहा. “कोई सैकल-वैकल उसके लिए नहीं खरीदेंगे.”
शूरिक ने मुँह फुलाया और कहा:
“मेरे पापा भी मेरे लिए बैसिकल खरीदेंगे. जैसे ही तनखा मिलेगी, फ़ौरन खरीदेंगे.”
Courtesy: storymirror.com

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क्या कहूँ, शब्द नहीं सूझ रहे उचित, बस अच्छा लिखने की कला ही तो नहीं है | मन है पर केवल मन होने से क्या होता है, हुनर भी तो होना चाहिए…लीधा ने कहा 🙂
मैं काफ़ी धीरे धीरे आगे बढ़ रही हूँ…दूसरे कामों का ढेर लगा है, ….पता नहीं कब पूरे होंगे…आप ध्यान देकर पढ़ते हैं, …अच्छा लगता है. धन्यवाद!