लेखक: राजगुरू द. आगरकर
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
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”Come on, join there.” गुरु की जाँच होने के बाद एक गोरे सैनिक ने पन्द्रह–बीस व्यक्तियों के गुट की ओर इशारा करते हुए कहा । गुरु को औरों के साथ बैरेक में लाया गया । एक गोरे अधिकारी की देखरेख में छह–सात गोरे सैनिकों का झुण्ड लॉकर्स की तलाशी ले रहा था ।
”Come on, hurry up! Open your locker, I want to check it.’ एक गोरे सैनिक ने उससे कहा ।
गुरु ने उसे लॉकर दिखाया और चाभी निकालकर वह लॉकर खोलने के लिए आगे बढ़ा ।
‘‘चाभी मुझे दे और तू वहीं खड़ा रह । बीच–बीच में न अड़मड़ा ।’’ गोरा सैनिक उसे धमका रहा था । ‘‘और देख, सिर्फ पूछे हुए सवालों के ही जवाब दे । फालतू की बकबक करेगा तो चीर के रख दूँगा ।’’
गोरे ने गुरु का लॉकर खोला और भीतर का सामान बाहर फेंकने लगा ।
‘‘खान वाकई में है दूरदर्शी । मुहिम पर जाते समय उसने लॉकर साफ करने को कहा था । पोस्टर्स, आपत्तिजनक काग़ज इकट्ठा करके जलाने को कहा था ।’’ गुरु सोच रहा था ।
‘‘यदि लॉकर में गलती से कुछ रह जाता तो…’’
मगर अब वह निडर हो गया था । ‘मिलता तो मिलता… क्या होगा ? दो–चार महीनों की कड़ी सजा । जानकारी हासिल करने के लिए यातना…ज़्यादा से ज़्यादा नौसेना से निकाल देंगे । फाँसी तो नहीं ना देंगे ? दी तो दी–––’ गुरु के लॉकर की तलाशी समाप्त हुई । फर्श पर कपड़ों का ढेर पड़ा था । अन्य वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं । गोरे सैनिक ने लॉकर का कोना–कोना छान मारा, वहाँ से निकला हुआ काग़ज का हर पुर्जा कब्जे में ले लिया और वह दूसरे लॉकर की ओर मुड़ा ।
गुरु मन ही मन यह सोचकर खुश हो रहा था कि उसे डायरी लिखने की आदत नहीं है ।
‘‘साला आज का दिन ही मुसीबत भरा है । यह अलमारी ठीक–ठाक करने के लिए कम से कम आधा घण्टा लग जाएगा, फिर उसके बाद डिवीजन, बारह से चार की ड्यूटी––– यानी नहाना–धोना वगैरह–––’’ अपने आप से बड़बड़ाते हुए वह लॉकर ठीक करने लगा ।
‘‘चाय ले ।’’ दास चाय का मग उसके सामने लाया । गुरु तन और मन से पूरी तरह पस्त हो गया था । उसे वाकई में चाय की ज़रूरत थी । दास को धन्यवाद देते हुए उसने चाय का मग हाथ में लिया ।
‘‘दत्त पकड़ा गया ।’’ दास बुदबुदाया ।
‘‘क्या ?’’ गुरु चीखा । उसके हाथ की चाय छलक गई ।
‘‘चिल्ला मत । मुसीबत आ जाएगी ।’’ दास ने उसे डाँटा ।
‘‘कब पकड़ा गया ?’’ वास्तविकता को भाँपकर गुरु फुसफुसाया ।’’
‘‘सुबह करीब तीन–साढ़े तीन बजे ।’’
‘‘मदन को मालूम है ?’’
‘‘मदन ने ही मुझे बताया । फ़ालतू में भावनावश होकर लोगों का ध्यान अपनी ओर न खींचो । जहाँ तक संभव हो, हम इकट्ठा नहीं होंगे । दो दिन पूरी हलचल बन्द । बोस पर नजर रखना । यदि कोई सन्देहास्पद बात नजर आए तो सब को सावधान करना । मदन ने ही तुझे कहलवाया है ।’’
दत्त उस रात्र ड्यूटी पर गया तो बड़े बेचैन मन से।
‘कल कमाण्डर इन चीफ़ आ रहा है और मैंने कुछ भी नहीं किया । औरों की बातों में आकर मैं भी डर गया । चिपका देता कुछ और पोस्टर्स, रंग देता डायस तो क्या बिगड़ता ? ज़्यादा से ज्यादा क्या होता… पकड़ लेते…’ खुद की भीरुता उसके मन को कुतर रही थी ।
बारह बजे तक वह जाग ही रहा था ।
‘अभी भी देर नहीं हुई है । कम से कम पाँच घण्टे बाकी हैं । अब जो होना है, सो हो जाए। पोस्टर्स तो चिपकाऊँगा ही । फ़ुर्सत मिलते ही बाहर निकलूँगा और दो–चार पोस्टर्स चिपका दूँगा ।’’ उसने मन ही मन निश्चय किया, ‘अच्छा हुआ कि कल शाम को खाने के बाद करौंदे की जाली में छिपाये हुए पोस्टर्स ले आया ।’
ड्यूटी पर जाते समय उसने पेट पर पोस्टर्स छिपा लिये ।
दत्त अपनी वॉच का एक सीनियर लीडिंग टेलिग्राफिस्ट था । आज तक के उसके व्यवहार से किसी को शक भी नहीं हुआ था कि वह क्रान्तिकारी सैनिकों में से एक हो सकता है । इसी का फ़ायदा उठाने का निश्चय किया दत्त ने ।
रात के डेढ़ बजे थे । ड्यूटी पर तैनात अनेक सैनिक ऊँघ रहे थे । ट्रैफिक वैसे था ही नहीं । चारों ओर खामोशी थी । दत्त ने मौके का फायदा उठाने का निश्चय किया । हालाँकि किंग ने यह आदेश दिया था कि रात में कोई भी सैनिक बैरेक से बाहर नहीं निकलेगा, परन्तु कम्युनिकेशन सेन्टर के सैनिकों की आवश्यकता होने पर बाहर जाने के लिए विशेष ‘पास’ दिये जाते थे । इनमें से एक ‘पास’ ड्यूटी पर आते ही दत्त ने ले लिया था । उसने एक लिफाफा लेकर उसे सीलबन्द किया और उस पर ‘टॉप सीक्रेट’ का ठप्पा लगाया । इसे जेब में रखा । यदि किसी ने टोका तो ये दोनों चीजें उसे बचाने के लिए पर्याप्त थीं ।
जैसे ही मौका मिलता, दत्त बाहर निकल जाता । अँधेरे स्थान पर दो–चार पोस्टर्स चिपकाकर वापस आ जाता । उसका ये पन्द्रह–बीस मिनटों के लिए बाहर जाना किसी को खटकता भी नहीं ।
उसका चिपकाया हुआ हर पोस्टर सैनिकों को बगावत करने पर उकसाने वाला था । एक पोस्टर पर लिखा था:
”Brothers, this is the time you must hate and this is the time you must love. Recognise your enemy and hate him. Love your mother, the Land, you are born.”
दूसरे पोस्टर में लिखा था: ‘‘दोस्तो, उठो, अंग्रेज़ों को और अंग्रेज़ी हुकूमत को हिन्दुस्तान से भगाने का यही वक्त है । नेताजी के सपने को साकार करने का समय आ गया है । उठो । अंग्रेज़ों के विरुद्ध खड़े रहो ।
“हम पर किये जा रहे अन्याय को हम कितने दिनों तक सहन करेंगे ? क्या हम नपुंसक हैं ?
‘‘क्या हमारा स्वाभिमान मर चुका है?’’
‘‘चलो, उठो! अंग्रेज़ी हुकूमत को नेस्तनाबूद कर दो ।जय हिन्द!”
‘‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा!’’
रात के तीन बजे तक दत्त ने आठ–दस पोस्टर्स चिपका दिये थे । मगर उसकी प्यास अभी बुझी नहीं थी ।
घड़ी ने तीन के घण्टे बजाये । कुर्सी पर बैठकर ऊँघ रहा दत्त चौंककर उठ गया ।
‘और एक घण्टा है मेरे पास । एक पन्द्रह–बीस मिनट का चक्कर, चार–पाँच पोस्टर्स तो आराम से चिपक जाएँगे,’ वह अपने आप से बुदबुदाया और निश्चयपूर्वक उठ गया । ठण्डे पानी से चेहरा मल–मलकर धोया, गोंद की बोतल ली । बोतल हल्की लग रही थी । बोतल खाली हो गई थी । चिढ़कर उसने बोतल डस्टबिन में फेंक दी ।
‘‘फिर कित्थे चले, भाई ?’’ ग्यान सिंह ने चिड़चिड़ाते दत्त से पूछा ।
‘‘क्रिप्टो ऑफिस जाकर आता हूँ,’’ कैप उठाते हुए दत्त ने जवाब दिया ।
‘‘आज बड़े घूम रहे हो । क्या बात है ?’’
ग्यान का यह नाक घुसाना अच्छा नहीं लगा दत्त को । उसकी ओर ध्यान न देते हुए वह क्रिप्टो ऑफिस गया । चुपचाप गोंद की बोतल उठाई ।
”I need it leading tel.” मेसेज डीक्रिप्ट करते हुए भट्टी ने कहा ।
”Don’t worry, यार; I will bring it back soon.” दत्त बाहर निकला ।
जहाँ जहाँ सम्भव हो रहा था, वहाँ वह पोस्टर्स चिपकाता जा रहा था । ‘अब यह आख़िरी पोस्टर चिपकाया कि बस…।’’ हर पोस्टर चिपकाते हुए वह अपने आप से यही कह रहा था । मगर काम का अन्त हो ही नहीं रहा था ।
‘‘हर चिपकाया हुआ पोस्टर अंग्रेज़ी हुकूमत पर एक घाव है, चिपका और एक पोस्टर, मार एक और घाव!’’ पोस्टर चिपकाने के बाद वह स्वयं से कहता ।
दूर कहीं जूतों की आवाज आई । दत्त सतर्क हो गया । उसके कान खड़े हो गए । आवाज़ से लग रहा था कि एक से ज्यादा व्यक्ति हैं । आवाज़ निकट आ रही थी ।
‘शायद ऑफिसर ऑफ दि डे की परेड होगी, यह आखिरी पोस्टर… ।’’
जल्दी–जल्दी वह पोस्टर चिपकाने लगा । जूतों की आवाज़ और नज़दीक आई ।
‘‘अब छुप जाना चाहिए । वरना…’’
उसने बचे हुए चार पोस्टर्स सिंग्लेट में छिपा लिये । बोतल उठाई और सामने वाली मेहँदी की चार फुट ऊँची बाँगड़ की ओर छलाँग लगा दी । वह बाँगड़ तो पार कर गया मगर हाथ की काँच की बोतल फिसल गई और खट से टकराई ।
उस नीरव खामोशी में बोतल गिरने की आवाज ध्यान आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी । सब लेफ्टिनेंट और उसके साथ के क्वार्टर मास्टर एवं दो पहरेदार आवाज़ की दिशा में दौड़े । बैटरियों के प्रकाशपुंज शिकार को ढूँढ़ रहे थे । दत्त को भागकर छुप जाने का मौका ही नहीं मिला ।
आसमान पर बादल गहरा रहे थे। उदास, फ़ीकी, पीली धूप चारों ओर फैली थी । मदन बेचैन था । कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था ।
‘‘तुझे ऐसा नहीं लगता कि दत्त ने जल्दबाजी की ?’’ थोड़ी फ़ुरसत मिलने पर मदन ने खान से पूछा ।
‘‘यह तो कभी न कभी होना ही था । अब समय गलत हो गया, या वह सही था, इस पर माथापच्ची करते हुए, इस घटना से हम कैसे लाभ उठा सकते हैं, इस पर विचार करना आवश्यक है । दत्त की गिरफ़्तारी का मतलब यह नहीं है कि सब कुछ ख़त्म हो गया । अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है । The show must go on.” खान ने बढ़ी हुई जिम्मेदारी का एहसास दिलाया ।
‘‘शेरसिंह से मिलकर उनकी सलाह लेनी चाहिए ।’’ गुरु ने सुझाव दिया ।
‘‘हाँ, मिलना चाहिए । मगर सावधानीपूर्वक मिलना होगा ।’’ खान ने कहा ।
‘‘मतलब ?’’ मदन ने पूछा ।
‘‘कहीं कोई हमारा पीछा तो नहीं कर रहा है, इस पर नज़र रखते हुए ही मिलना चाहिए । बोस से सावधान रहना होगा ।’’ खान ने कहा ।
‘‘मेरा ख़याल है कि हम तीनों को एक साथ बाहर निकलना चाहिए । यदि बोस पीछा कर रहा हो, तो तीनों तीन दिशाओं में जाएँगे । जिसके पीछे बोस जाएगा, वह शेरसिंह के निवास स्थान से दूर जाएगा । बाकी दो शीघ्रातिशीघ्र शेरसिंह से मिलकर वापस आ जाएँगे ।’’ गुरु का सुझाव सबको पसन्द आ गया । ‘‘परिस्थिति कैसी करवट लेती है, यह हम देखेंगे । इस घटना का सैनिकों पर क्या परिणाम हुआ है, यह देखकर ही हम शेरसिंह से मिलेंगे ।’’
बैरेक में बेचैनी महसूस हो रही थी । कोई भी कुछ कह नहीं रहा था । दत्त द्वारा दिखाए गए साहस से उसके प्रति आदर बढ़ गया था ।
‘‘दत्त का लॉकर कौन–सा है?’’ सब ले. रावत के सवाल का जवाब देने के लिए कोई भी आगे नहीं आया ।
सब ले. रावत एक ज़मींदार का इकलौता और लाडला बेटा, रंग से जितना काला था उतना ही मन का भी काला था । बाप–दादाओं की अंग्रेज़ों के प्रति निष्ठा के कारण उसे नौसेना में प्रवेश मिला था । राज करने वालों के तलवे चाटना और अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करना, ये दोनों गुण उसे विरासत में मिले थे ।
कल रावत ही ‘ऑफिसर ऑफ दि डे’ था । दत्त को उसी ने पकड़ा था ।
असल में दत्त तो उसकी अपनी गलती से पकड़ा गया था, मगर रावत इसे अपना पराक्रम समझ रहा था और इस पर खुश हो रहा था । उसका यह विचार था कि वॉर रेकॉर्ड न होने के कारण उसका प्रमोशन रुका हुआ है । दत्त को पकड़ने से अब रास्ता साफ़ हो गया है । वह अब दत्त के विरुद्ध अधिकाधिक सुबूत इकट्ठा कर रहा था । साथ ही और किसे पकड़ सकता है, यह भी जाँच रहा था । सैनिक उसे भली–भाँति जानते थे । सभी के चेहरों पर एक ही भाव था, ‘‘यह मुसीबत यहाँ क्यों आई है ? अब और किसे पकड़ने वाला है ?’’
”Bastard! तलवेचाटू कुत्ता, साला! साले को जूते से मारना चाहिए ।’’ यादव बड़बड़ाया
‘‘यह वक्त नहीं है । हमें शान्त रहना चाहिए ।’’ दास ने समझाया ।
‘‘आर.के. का बलिदान, रामदास की गिरफ्तारी, दत्त की कोशिश बेकार नहीं गई । आज यादव जैसा इन्सान, जो आज तक हमसे दूर था, कम से कम विचारों से तो पास आ रहा है । दास सोच रहा था, ‘सैनिकों का आत्मसम्मान जागृत होकर यदि सैनिक संगठित होने वाले हों, तो ऐसे दस दत्तों की बलि भी मंजूर है’ ।’’
सभी को चुपचाप और मौका मिलते ही एक–एक को बाहर जाते देखकर रावत आगबबूला हो उठा । बीच की डॉर्मेटरी में खड़ा होकर वह चीख रहा था, ‘‘मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, दत्त का लॉकर कौन–सा है ? अरे, भागते क्यों हो! एक भी हिम्मत वाला नहीं है ? सभी Gutless bastards!” किसी को भी आगे न आते देखकर वह फिर चिल्लाया, ‘‘भूलो मत, मेरा नाम सर्वदमन है, टेढ़ी उँगली से घी निकालना मैं जानता हूँ!’’
‘‘मैं किसी से नहीं डरता । मैं दिखाता हूँ दत्त का लॉकर ।’’ बोस सहकार्य देने के लिए तैयार हो गया ।
‘‘शाबाश मेरे शेर!’’ रावत ने प्रशंसा से बोस की ओर देखा । दत्त का लॉकर तोड़ा गया । उसमें रखे छोटे से छोटे पुर्जे को भी दर्ज करके कब्जे में लिया जा रहा था । बोस बड़े जोश से मदद कर रहा था ।
दत्त के लॉकर में काफी कुछ मिला । दो–चार बड़े–बड़े पोस्टर्स, हैंडबिल्स, दो डायरियाँ, अशोक मेहता के हस्ताक्षर वाली पुस्तक ‘इंडियन म्यूटिनी 1857’ एवं साम्यवादी विचारधारा की दो किताबें, सुभाषचन्द्र बोस का फोटो उनके हस्ताक्षर सहित और उनके भाषणों की प्रतियाँ भी मिलीं । मिलने वाली हर चीज़ के साथ रावत का चेहरा चमक रहा था । वह ज़ोर–ज़ोर से स्वयं से ही बड़बड़ा रहा था, ‘साला पक्का फँस गया! म्यूटिनी करता है! अरे, मैं तेरा बाप हूँ, बाप, हरामी साला! कर ले म्यूटिनी! अब कम से कम चार साल के लिए चक्की पीसेगा…।’
Courtsey: storymirror.com

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