लेखक: धीराविट पी. नागात्थार्न
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
*Succesore novo vincitur omnis amor (Latin): नया प्यार हमेशा पुराने प्यार को हरा देता है Ovid 43 BC-AD C.17
सातवाँ दिन
जनवरी १७,१९८२
आज इतवार है। तुम्हारी बेहद याद आ रही है। हम साथ-साथ काम करते रहें है। मगर जिन्दगी की ज़रूरत ने, जो अचानक वज्रपात की तरह गिरी, हमें जुदा कर दिया। तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया क्रूर भाग्य के थपेडे खाने के लिये! मेरे दिल में गम ने अपनी जगह बना ली है। हम, किसी न किसी रूप में, जिन्दगी के कैदी हैं। इतना मैं जानता हूँ। हर रोज मैं यही सोचकर अपने आप को दिलासा देता हूँ कि तुम कभी न कभी तो वापस आओगी। मैं अभी भी एक कैदी की तरह अपने प्यार के वापस लौटने का इंतजार करने की ड्यूटी निभा रहा हूँ।
आज सुबह मैं कुछ देर से उठा क्योंकि कल रात रोज़मर्रा के कामों में देर रात तक उलझा रहा। दस बजे मैं और सोम्मार्ट मुंशीराम बुक स्टोर गए, स्कूटर से। बदकिस्मती से वह बन्द था। वजह सिर्फ ये थी कि यह एक ‘छुट्टी!’ का दिन था। हम आगे कनाट प्लेस तक किसी काम से चले गए। इतवार के दिन कनाट प्लेस कब्रिस्तान की तरह दिखाई देता है। करीब-करीब सारी दुकानें बन्द थीं। कुछ विदेशी टूरिस्ट्स कॉरीडोर्स में, फुटपाथों पर और सड़कों पर चल रहे थे। सड़क पर गाडियाँ लगातार आ-जा रही थी। ट्रैफिक सुचारू रूप से चल रहा था।
पालिका प्लाजा़ बन्द था। सिर्फ रेस्तराँ और थियेटर्स खुले थे। घूमने निकलने से पहले हमने ‘हेस्टी-टेस्टी’ रेस्तरॉ में सस्ता-सा लंच लिया। फिर हम एक गोलाकार पथ पर एक जगह से दूसरी जगह चलते रहे। हमने शुरूआत की ‘हेस्टी–टेस्टी’ से पालिका प्लाजा़ तक, जनपथ, फिर ‘क्वालिटी रेस्तराँ’ के सामने रीगल तक। हमने ज्यादातर समय सड़क पर लगी दुकानों में सस्ते कपडों और किताबों को देखने में बिताया। साड़ी पहनी सुन्दर, जवान लड़कियों को देखना अच्छा लग रहा था।
वे रेगिस्तान में किसी नखलिस्तान की तरह मालूम होती थी। एक दिलचस्प बात यह हुई कि जब हम ‘क्वालिटी रेस्तराँ’ के सामने किताबें छान रहे थे तो हमें एक अजीब सा आदमी मिला। सोम्मार्ट ने जन्म-कुण्डली पर एक किताब उठाई और उसका कवर देखने लगा। वह अजीब आदमी उसकी तरफ आया और पूछने लगा,
‘‘क्या तुम बौद्ध हो?’’
‘‘हाँ’’ सोम्मार्ट ने ताज्जुब से कहा। आदमी ने आगे पूछा, ‘‘क्या तुम जन्म–पत्री में विश्वास करते हो?’’
सोम्मार्ट जवाब देने से हिचकिचा रहा था। मैं परिस्थिति समझ रहा था और मुझे डर था कि सोम्मार्ट कहीं उसके जाल में न फँस जाए, मैं बोल पड़ा,
‘‘ये बस व्यक्तिगत दिलचस्पी है।’’
उसने यूँ सिर हिलाया, जैसे इस बात को जानता है। फिर उसने किताब की कीमत पूछी और सोम्मार्ट के लिये उसे खरीद लिया। सोम्मार्ट इस प्रतिक्रिया से कुछ चौंक गया। उसे समझना मेरे बस के बाहर की बात थी। उसने एक-तरफा बात-चीत शुरू कर दी, स्वगत भाषण, धर्मों पर और आध्यात्मिकता पर। हम उसकी बातों पर पूरा ध्यान दे रहे थे, सिर्फ इसलिये कि उसका मन पढ़ सकें और यह पता कर सकें कि वह किस तरह का आदमी है। उसके हुलिए और उसकी बातों के आधार पर मैं उसे कोई धार्मिक कट्टरपंथी कहूँगा।
उसका मुख्य उद्धेश्य था धर्म के प्रति उसके अपने मूल्यांकन को लोगों में फैलाना। इस लिये, मेरे दिमाग पर कोई प्रभाव नहीं पडा़। मैं तो इसे एक आकास्मिक आश्चर्य कहूँगा, बस, और कुछ नहीं।
हम १०४ नंबर की बस पकड़ कर होस्टल की ओर चले। जब हम दरियागंज पहुँचे (लाल किले के निकट), तो हमने अपना इरादा बदल दिया और वहाँ फुटपाथ पर लगी ढेर सारी पुस्तकों की प्रदर्शनियों के लिये वहाँ उतर पड़े। ज्यादातर किताबें बेकार की थीं, फटी हुई और गन्दी। अपने लालच को रोक न पाने से मैंने दो किताबें खरीद ही ली १२० रू० में।
हम वहाँ से हटे, कुछ आगे चले लाल किले की ओर कपडे देखने के लिए जिनकी ढेर सारी किस्में वहाँ रखी थीः कोट, ओवर-कोट, स्वेटर और भी न जाने क्या-कया। उन्हें देखते-देखते थककर हमने वापस जाकर लाल किले वाले बस-स्टॉप से बस पकड़ने का निश्चय किया, वहाँ हमें फागा मिली जो थाई लोगों की चर्चा का केन्द्र थी। वह अपने फलैट पर जा रही थी। हमने भी वही बस पकड़ी और मॉल-रोड तक हम साथ ही रहे। वह शेखी मार रही थी, जैसे वह अपनी किस्म की एक ही थी। ये भी एक चौंकाने वाला संयोग था।
आज रात मेरे होस्टल में खाना नहीं था इसलिए मुझे और सोम्मार्ट को खाने के लिये कहीं और जाना पडा। हमने ग्वेयर हॉल में खाना खाया। खाना एकदम बेस्वाद थाः दाल, सब्जी और चावल – हमेशा ही की तरह। मैं नहीं कह सकता कि आज का दिन ‘उल्लेखनीय’ था।
मैं थक गया था, मेरी जान, मैं जल्दी सोना चाहता था। अगर सलामत रहा तो तुमसे मिलूँगा। मैं तुमसे सपने में मिलूँगा।
शुभ रात्रि, मेरे प्यार।

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