लेखक: धीराविट पी. नागात्थार्न
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
*Amor ut lacrima ab aculo oritur in pectus cadit (Latin): प्यार एक आँसू की तरह, आँख से निकल कर सीने पर गिरता है – प्यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC)
चौथा दिन
जनवरी १४,१९८२
उम्मीद है कि अब तक तुम अपने माता-पिता और रिश्तेदारों से बातें कर चुकी होगी। मैं समझता हूँ कि उनके साथ तुम खुश होगी। थाई खाने ने किसी बिछड़े हुए दोस्त की तरह तुम्हारी जुबान को छुआ होगा। वहाँ के क्या हाल हैं? आमतौर से, मेरा मतलब है, मैं खुश हूँ, इसलिये कि तुम खुश हो। तुम्हारी खुशी मेरे लिये सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है।
तुम चाहे जहाँ भी हो, जो भी कर रही हो, मैं अभी भी तुमसे प्यार करता हूँ। मेरी भावनाएँ वहीं हैं – तुम्हारे बगैर जिन्दगी असहयनीय है, बर्दाश्त से बाहर है, और अंधेरी है। मैं दिनभर में हजारों बार तुम्हारे मेरे पास वापस आने की तमन्ना करता हूँ।
कल रात मैं बड़ी गहरी नींद सोया – आराम की नींद, बिना किसी सपने की, इसलिये मैंने सुबह का स्वागत हँस कर किया। आज मैंने हम दोनों ही के लिये फायदेमन्द काम किये। सुबह दस बजे पहले मैं मि० कश्यप के घर गया और तुम्हारा काम उनकी पत्नी को दे दिया। वे घर पर नहीं थे, मगर उन्होंने मुझे अन्दर आने और एक प्याली चाय पीने की दावत दी। मैंने नम्रता से माफ़ी माँग ली, यह कहते हुए कि मैं फिर से मि० कश्यप से मिलने आऊँगा।
फिर मैं लिंग्विस्टिक्स डिपार्टमेन्ट गया कुछ लेक्चरर्स से मिलने जो मुझे अपना रिसर्च टॉपिक चयन करने में मदद कर सकेंगे। मैं प्रोफेसर सिन्हा से मिला और उनसे सलाह माँगी। उन्होंने मुझे ‘नेगेशन (प्रत्याख्यान)’ पर कुछ पुस्तकों के नाम दिये और मेरे कार्य की रूप रेखा बनाई। उनकी सलाह से मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने डिपार्टमेन्ट – लाइब्रेरी से वह पुस्तक ली और युनिवर्सिटी कैन्टीन आया अपनी भूख मिटाने जो मुझे परेशान कर रही थी।
केम्पस में कर्मचारियों की हडताल अभी भी चल रही है। दिन भर में एक लम्बा जुलूस निकल ही जाता है। नारे, माँगे और विरोध उनकी हड़ताल की मुख्य बातें हैं, सेन्ट्रल लाइब्रेरी के सामने प्रदर्शनकारियों का एक समूह भाषणबाजी कर रहा था अधिक गतिशीलता, अधिक आंदोलनकारियों, अधिक सहभागियों के लिये।
भगवान ही जानता है कि उन्हें कितनी सफलता मिली है। ये हर साल ही होता है – मौसम की तरह मगर इससे हासिल कुछ भी नहीं होता। उनकी माँगों के कोई जवाब नहीं दिये जाते। कैसी बुरी हालत है! इस बेकार की हड़ताल से ‘बोर’ होकर मैं डिपार्टमेन्ट गया, यह पता करने के लिये कि क्या मैं ‘हेड’ से मिल सकता हूँ, इसके बाद गया युनिवर्सिटी कैन्टीन। वहाँ मुझे मिले वुथिपोंग, चवारा, प्राचक, और आराम पोल्ट्री, जिसने हाल ही में भिक्षु-वस्त्र छोड़ दिये हैं। अपनी नई ड्रेस में आराम बड़ा बढि़या लग रहा है। हमने वहीं पर एक छोटी सी पार्टी की और फिर अपने-अपने होस्टल चले गए।
शाम को वुथिपोंग फिर मेरे कमरेमें आया। उसने अपने एक-तरफा प्यार पर किये गए खतरनाक प्रयोग की प्रगति के बारे में बताया। वह काफी दृढ़ और स्थिरचित्त लग रहा था। उसने वादा किया कि चाहे जितना भी कठिन हो, वह अपनी भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश करेगा, मैंने उसका हौसला बढ़ाया और उसे इस प्रेम-त्रिकोण से – तीन आदमी और एक लड़की वाले खेल से बाहर निकलने के लिये उसकी मिन्नत की। उसने मुझसे और सोमार्ट से उसके साथ पिंग-पाँग खेलने के लिये कहा, मगर हमने यह कहकर माफी़ मांग ली कि हमें इसी समय कई काम करने हैं। वह कमरे से खुश होकर बाहर गया।
एक मजेदार बात हुई पी०जी० वूमेन्स होस्टल में साढे़ बाहर बजे। मैं वहाँ गया टेप-रिकार्डर, ब्लैन्केट और बाकी चीजें, जो तुमने मेरे लिये छोडी थीं – लेने ‘ओने’ ने मुझे वे चीजें दीं, मगर वह उनके साथ बाहर नहीं निकल सकी। डयूटी वाले चौकीदार ने गेट-पास पूछा, जिसकी ओने को उम्मीद नहीं थी। उसे वार्डन के पास जाना पडा़। जब मैं होस्टेल-गेट पर इंतजार कर रहा था तो मुझे शुक्ला मिली (मैं अपनी डायरी में उसका जिक्र कर चुका हूँ)। मैंने उसे अपनी समस्या के बारे में बताया। उसने वादा किया कि वह जल्द से जल्द इसे सुलझा देगी। कुछ ही मिनटों बाद समस्या हल हो गई, शांतिपूर्ण तरीके से। धन्यवाद ओने को और शुक्ला को।
डिनर के बाद मैंने कुछ देर पढ़ाई की, मगर कुछ भी समझ में नहीं आया। मेरा दिमाग तो सैकडों मील दूर था, वह तुम्हारे पास जा रहा था। क्या तुमने महसूस किया? कुछ कर पाना मुश्किल था, मैंने तय कर लिया कि मैं सो जाऊँगा और तुमसे मिलूँगा सपने में – उस काल्पनिक दुनिया में। जल्दी ही तुमसे मिलूँगा, मेरी जान!

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