अध्याय – 2
लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
पढ़ना सीखने की बिल्कुल कोई ज़रूरत नहीं है, जब वैसे भी एक मील दूर से माँस की ख़ुशबू आती है. वैसे भी (अगर आप मॉस्को में रहते हैं और आपके सिर में थोड़ा-सा भी दिमाग़ है), आप चाहे-अनचाहे बिना किसी कोर्स के पढ़ना सीख ही जायेंगे. मॉस्को के चालीस हज़ार कुत्तों में से कोई बिल्कुल ही बेवकूफ़ होगा जो अक्षरों को जोड़-जोड़ कर “सॉसेज” शब्द नहीं बना सकता.
शारिक ने रंग देखकर सीखना शुरू किया. जैसे ही वह चार महीने का हुआ, पूरे मॉस्को में “MSPO (मॉस्को कंज़्यूमर सोसाइटीज़ यूनियन – अनु.) – माँस का व्यापार” के हरे-नीले रंग के बैनर्स लग गये. हम दुहराते हैं, कि यह बेकार में ही है, क्योंकि वैसे भी ‘माँस’ सुनाई देता है. और एक बार गड़बड़ हो गई : तीखे नीले रंग के पास आने पर, शारिक, जिसकी सूँघने की शक्ति गाड़ियों से निकलते पेट्रोल के धुँए के कारण ख़त्म हो गई थी, माँस की दुकान के बदले मिस्नीत्स्काया स्ट्रीट पर गलुबिज़्नेर ब्रदर्स की इलेक्ट्रिकल सामानों की दुकान में घुस गया. वहाँ भाईयों की दुकान में कुत्ते ने विद्युतरोधी तार को खाने की कोशिश की, वह गाड़ीवान के चाबुक से ज़्यादा साफ़ थी. इस लाजवाब पल को ही शारिक की शिक्षा का आरंभिक बिंदु समझना होगा. वहीं फुटपाथ पर शारिक समझने लगा कि “नीला” हमेशा “माँस की दुकान” को ही प्रदर्शित नहीं करता और, दाहक दर्द के मारे अपनी पूँछ को पिछली टांगों में दबाये और विलाप करते हुए, उसने याद कर लिया कि सभी माँस के बैनर्स पर बाईं ओर शुरू में एक सुनहरी या भूरी, टेढ़ी-मेढ़ी, स्लेज जैसी चीज़ होती है.
आगे और भी सफ़लता मिलती गई. ‘A’ उसने ‘ग्लावरीबा’ (प्रमुख मछली केंद्र – अनु.) से सीखा जो मखवाया स्ट्रीट के नुक्कड़ पर था, फिर ‘B’ भी – उसके लिये ‘रीबा’ (मछली – अनु.) शब्द की पूँछ की तरफ़ से भागना आसान था, क्योंकि इस शब्द के आरंभ में सिपाही खड़ा था. कोने वाली दुकानों से झांकती टाईल्स का मतलब ज़रूर ‘चीज़’ होता था. समोवार का काला नल, जो इस शब्द के आरंभ में होता था, पुराने मालिक “चीच्किन” को प्रदर्शित करता था, हॉलेण्ड की ‘रेड चीज़’ के ढेर, जंगली जानवरों के वेष में क्लर्क, जो कुत्तों से नफ़रत करते थे, फ़र्श पर पड़ा हुआ भूसा और बेहद बुरी तरह से गंधाती चीज़ ‘बेक्श्तेन’.
अगर एकॉर्डियन बजा रहे होते, जो “स्वीट आयदा” से काफ़ी बेहतर होता, और सॉसेज की ख़ुशबू आती, सफ़ेद बैनर्स पर पहले अक्षर आराम से “असभ् …” शब्द बनाते. इसका मतलब होता कि “असभ्य शब्दों का प्रयोग न करें और चाय-पानी के लिये न दें”. यहाँ कभी-कभी झगड़े हो जाते, लोगों के थोबडों पर मुक्के बरसाये जाते, – कभी, कभी, बिरली स्थितियों में, – रूमालों से या जूतों से भी पिटाई होती.
अगर खिड़कियों में ‘हैम” की बासी खाल लटक रही होती और संतरे पड़े होते…गाऊ…गाऊ…गा…स्त्रोनोम (डिपार्टमेन्टल स्टोर – अनु.). अगर काली बोतलें गंदे द्रव से भरी हुई…व-इ-वि-ना-आ-विनो (वाईन-अनु.)…भूतपूर्व एलिसेयेव ब्रदर्स.
अनजान ‘भले आदमी’ ने, जो कुत्ते को बिचले तल्ले पर स्थित अपने शानदार क्वार्टर के दरवाज़े की ओर खींचते हुए ला रहा था, घंटी बजाई, और कुत्ते ने फ़ौरन सुनहरे अक्षरों वाली काली नेमप्लेट की ओर आँखें उठाईं, जो एक चौड़े, लहरियेदार और गुलाबी काँच जड़े दरवाज़े की बगल में लटक रही थी. पहले तीन अक्षरों को उसने फ़ौरन पढ़ लिया : पे-एर-ओ “प्रो”. मगर आगे फूली-फूली दोहरी कमर वाली बकवास थी, पता नहीं उसका क्या मतलब था. ‘कहीं प्रोएलेटेरियन तो नहीं?’ शारिक ने अचरज से सोचा… ‘ऐसा नहीं हो सकता’. उसने नाक ऊपर उठाई, फिर से ओवरकोट को सूंघा और यकीन के साथ सोचा:
‘नहीं, यहाँ प्रोलेटेरियन की बू नहीं आ रही है. वैज्ञानिक शब्द है, और ख़ुदा जाने उसका क्या मतलब है’.
गुलाबी काँच के पीछे एक अप्रत्याशित और ख़ुशनुमा रोशनी कौंध गई, जिसने काली नेमप्लेट पर और भी छाया डाल दी. दरवाज़ा बिना कोई आवाज़ किये खुला, और सफ़ेद एप्रन और लेस वाला टोप पहनी एक जवान, ख़ूबसूरत औरत कुत्ते और उसके ‘भले आदमी’ के सामने प्रकट हुई.
उनमें से पहले को ख़ुशनुमा गर्मी ने दबोच लिया, और औरत की स्कर्ट घाटी की लिली जैसी महक रही थी.
‘ये हुई न बात, मैं समझ रहा हूँ,’ कुत्ते ने सोचा.
“आईये, शारिक महाशय,” भले आदमी ने व्यंग्य से उसे बुलाया, और शारिक आज्ञाकारिता से पूँछ हिलाते हुए भीतर आया.
प्रवेश-कक्ष ख़ूब सारी शानदार चीज़ों से अटा पड़ा था. दिमाग़ में फ़ौरन फ़र्श तक आता हुआ शीशा याद रह गया, जो दूसरे बदहाल और ज़ख़्मी शारिक को प्रतिबिम्बित कर रहा था, ऊँचाई पर रेन्डियर के ख़ौफ़नाक सींग, अनगिनत ओवर कोट और गलोश और छत के नीचे दूधिया त्युल्पान वाला बिजली का बल्ब.
“आप ऐसे वाले को कहाँ से ले आये, फ़िलीप फ़िलीपविच?” मुस्कुराते हुए औरत ने पूछा और नीली चमक वाला काली-भूरी लोमड़ी की खाल का ओवरकोट उतारने में मदद करने लगी. ”पापा जी! कितना ग़लीज़ है!”
“बकवास कर रही हो. ग़लीज़ कहाँ है?” भले आदमी ने फ़ौरन कड़ाई से कहा.
ओवरकोट उतारने के बाद वह अंग्रेज़ी कपड़े के काले सूट में नज़र आया और उसके पेट पर सुनहरी चेन ख़ुशी से और अस्पष्ट रूप से दमक रही थी.
“रुक-भी, घूमो नहीं, फ़ित्…अरे, घूमो नहीं, बेवकूफ़. हम्!…ये ग़ली…नहीं…अरे ठहर जा, शैतान…हुम्! आ-आ. ये जल गया है. किस बदमाश ने तुझे जला दिया? आँ? अरे, तू शांति से खड़ा रह!…”
“रसोईये ने, कैदी रसोईये ने!” शिकायत भरी आँखों से कुत्ते ने कहा और हौले से बिसूरने लगा.
“ज़ीना,” सज्जन ने हुक्म दिया, “इसे फ़ौरन जाँच वाले कमरे में और मुझे एप्रन.”
औरत ने सीटी बजाई, चुटकी बजाई और कुत्ता, कुछ हिचकिचाकर, उसके पीछे-पीछे चलने लगा. वे दोनों एक संकरे कॉरीडोर में आये, जिसमें रोशनी टिमटिमा रही थी, एक वार्निश किये हुए दरवाज़े को छोड़ दिया, कॉरीडोर के अंत तक आये, और फिर बाईं ओर मुड़े और एक छोटे-से अंधेरे कमरे में पहुँचे, जो अपनी ख़तरनाक गंध के कारण कुत्ते को बिल्कुल पसन्द नहीं आया. अंधेरा थरथराया और चकाचौंध करने वाले दिन में बदल गया, चारों ओर से चिंगारियाँ निकल रही थीं, हर चीज़ चमक रही थी और सफ़ेद हो रही थी.
‘ऐ, नहीं’, कुत्ता ख़यालों में बिसूरने लगा, ‘माफ़ करना, मैं ख़ुद को आपके हवाले नहीं करूँगा! समझता हूँ, शैतान ले जाये उन्हें अपने सॉसेज के साथ. ये मुझे कुत्तों के अस्पताल में ले आये हैं. अब ज़बर्दस्ती कॅस्टर-ऑइल पिलायेंगे और पूरी बाज़ू को चाकुओं से काट देंगे, मगर इस तरह आप मुझे नहीं छू सकते.’
“ऐ, नहीं, कहाँ?!” वह चिल्लाई, जिसका नाम ज़ीना था.
कुत्ते ने अपने शरीर को मोड़ा, स्प्रिंग की तरह उछला और अचानक अपनी तंदुरुस्त बाज़ूं से दरवाज़े पर ऐसी चोट की, कि पूरा क्वार्टर झनझना गया. फिर, पीछे की ओर उड़ा, अपनी जगह पर कोड़े खाते हुए आदमी की तरह गोल-गोल घूमा, सफ़ेद बालटी फ़र्श पर उलट दी, जिसमें से रूई के फ़ाहे उड़ने लगे. जब वह चारों ओर गोल-गोल घूम रहा था, तो उसके चारों ओर दीवारें फड़फ़ड़ा रही थीं, जिनसे लगी हुई चमकीले उपकरणों वाली अलमारियाँ खड़ी थीं, सफ़ेद एप्रन और औरत का भयभीत चेहरा उछल रहा था.
“कहाँ चला तू, बालों वाले शैतान?..” बदहवासी से ज़ीना चीखी.”…घिनौने!”
‘उनकी चोर-सीढ़ी कहाँ है?’…कुत्ता सोच रहा था. उसने अपने बदन को ढीला किया और एक ढेले की तरह काँच को ठोस मारी, इस आशा से कि यह दूसरा दरवाज़ा है. एक धमाके और आवाज़ के साथ किरचियों का बादल उड़ा, एक बड़े पेट वाला जार, अपने भूरे गंदे कीचड़ समेत उड़ा, जो फ़ौरन पूरे फ़र्श पर बहने लगा और बदबू छोड़ने लगा. सचमुच का दरवाज़ा धड़ाम् से खुला.
“रुक, ज-जंगली,” एप्रन की एक ही आस्तीन पहने उछलता हुआ भला आदमी चिल्लाया, और उसने कुत्ते को टाँगों से पकड़ लिया. “ज़ीना, इस कमीने की गर्दन पकड़.”
“ब्बा…बाप रे, क्या कुत्ता है!”
दरवाज़ा और चौड़ा खुला और एक और मर्द इन्सान एप्रन पहने भीतर घुसा. टूटे हुए काँचों को दबाते हुए वह कुत्ते की ओर नहीं, बल्कि अलमारी की तरफ़ लपका, उसे खोला पूरे कमरे को मीठी, उबकाई लाने वाली गंध से भर दिया. इसके बाद यह व्यक्ति ऊपर से पेट के बल कुत्ते पर, झपटा, कुत्ते ने उसे जूते की लेस से कुछ ऊपर नोच लिया. वह व्यक्ति कराहा, मगर परेशान नहीं हुआ. उबकाई लाने वाला द्रव कुत्ते की सांसों में मिल गया और उसका सिर घूमने लगा, फिर टाँगें ढीली पड़ गईं और वह तिरछे-तिरछे चलने लगा. ‘शुक्रिया, बेशक,’ उसने सीधे नुकीले किरचों पर गिरते हुए, जैसे सपने में सोचा. ‘अलबिदा, मॉस्को! मैं फिर कभी चीच्किन और प्रोलेटेरियन्स और क्राकोव-सॉसेज नहीं देख पाऊँगा. कुत्ती-सहनशीलता के कारण जन्नत में जा रहा हूँ. भाईयों, कसाईयों, आप क्यों मुझसे ऐसा कर रहे हैं?’
और तब आख़िरकार वह एक करवट फ़र्श पर लुढ़क गया और उसने दम तोड़ दिया.
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